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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


आहुति

5)
इधर कुछ दिनों से शहर में एक स्त्री-समाज की स्थापना हुई थी। एक दिन उसकी कार्यकारिणी की कुछ महिलाएँ आकर कुन्तला को निमंत्रण दे गईं। कुन्तला ने सोचा, अच्छा ही है, घंटे-दो-घंटे घर से बाहर रहकर अपने इस जीवन के अतिरिक्त भी देखने और सोचने-समझने का अवसर मिलेगा। उसने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। वहाँ गई भी। वहाँ जितनी स्त्रियों ने भाषण पढ़े या दिए, कुन्तला ने सुने, उसने सोचा वह इन सबसे अधिक अच्छा लिख सकती है और बोल सकती है। घर आकर उसने भी एक लेख लिखा। विषय था-"भारत की वर्तमान सामाजिक अवस्था में स्त्रियों का स्थान ।” राधेश्याम जी ने भी लेख देखा । बहुत ही प्रसन्न हुए, लेख लिए हुए वे बाहर गए; बैठक में कई मित्र बैठे थे; उन्हें दिखलाया। sभी ने लेखिका की शैली एवं सामयिक ज्ञान की प्रशंसा की ।

अपने एक साहित्य-सेवी मित्र अखिलेश्वर को लेकर राधेश्याम भीतर आए; कुन्तला को पुकार कर बोले- “कुन्तला, तुम्हारा लेख बहुत ही अच्छा है; मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतना अच्छा लिख सकती हो, नहीं तो तुमसे सदा लिखते रहने का आग्रह करता। तुम्हारे इस लेख में कहीं भाषा की त्रुटियाँ हैं ज़रूर, पर सो ये मेरे मित्र अखिलेश्वर ठीक कर देंगे। अब तुम रोज़ कुछ लिखा करो; ये ठीक कर दिया करेंगे । मुझे तो भाषा का ज्ञान नहीं; अन्यथा मैं ही देख लिया करता। खैर कोई बात नहीं; यह भी घर ही के से आदमी हैं। कुन्तला के लेखों के देखने का भार अखिलेश्वर को सौंप कर राधेश्याम को बहुत सन्तोष हुआ।

कुन्तला को अब एक ऐसा साथी मिला था, जिसकी आवश्यकता का अनुभव वह बहुत दिनों से कर रही थी। जो उसे घरेलू जीvन के अतिरिक्त और भी बहुत-सी उपयोगी बातें बता सकता था; जो उसे अच्छे से अच्छे लेखक और कवियों की कृतियों का रसास्वादन करा के साहित्यिक-जगत की सैर करा सकता था। कुन्तला अखिलेश्वर का साथ पाकर बहुत सन्तुष्ट थी। अब उसे अपना जीवन उतना कष्टमय और नीरस न मालूम होता था । कुन्तला और अखिलेश्वर प्रतिदिन एक बार अवश्य मिला करते । कुन्तला की अभिरुचि साहित्य की ओर देखकर, उसकी विलक्षण कुशाग्र बुद्धि एवं लेखन-शैली की असाधारण प्रतिभा पर अखिलेश्वर मुग्ध थे । वे उसे एक सुयोग्य रमणी बनाने में तथा उसकी प्रतिभा को पूर्ण रूप से विकसित करने में सदा प्रयत्नशील रहते थे। लाइब्रेरी में जाते; अच्छी से अच्छी पुस्तकें लाते; और उसे घंटों पढ़कर सुनाया करते । कविवर शेली, टेनीसन और कीटस् तथा महाकवि शेक्सपीयर इत्यादि की ऊंचे दरजे की कविताएँ पढ़कर उसे समझाते, उसके सामने व्याख्या तथा आलोचना करते और उससे करवाते । हिन्दी के धुरंधर कवियों की रचनाएँ सुना कर वे कुन्तला की प्रवृत्ति कविता की ओर फेरना चाहते थे। उनका विश्वास था कि कुन्तला लेखों से कहीं अच्छी कविताएँ लिख सकेगी। किन्तु अब राधेश्याम को कुन्तला के पास अखिलेश्वर का बैठना अखरने लगा था। वे कभी-कभी सोचते, शायद कुन्तला के सुन्दर रूप पर ही रीझ कर अखिलेश्वर उसके साथ इतना समय व्यतीत करते हैं। किन्तु वे प्रक्ट में कुछ न कह सकते थे; क्योंकि उन्होंने स्वयं ही तो उनका आपस में परिचय कराया था । कुन्तला राधेश्याम के मन की बात समझती थी, इसलिए वह बहुत सतर्क रहती। किंतु फिर भी यदि कभी भूल से उसके मुँह से अखिलेश्वर का नाम निकल जाता तो राधेश्याम के हृदय में ईर्ष्या की अग्नि भभक उठती। अब अखिलेश्वर के लिए राधेश्याम के हृदय में मित्र भाव की अपेक्षा ईर्ष्या का भाव ही अधिक था।

इन्हीं दिनों कुन्तला ने दो-चार तुकबंदियाँ भी कीं, जिनमें कल्पना की बहुत ऊँची उड़ान और भावों का बहुत सुंदर समावेश था, किंतु शब्दों का संगठन उतना अच्छा नहीं था, अपने हाथ के लगाए हुए पौधों में फूल आते देखकर जिस प्रकार किसी चतुर माली को प्रसन्‍नता होती है, उसी प्रकार कुन्तला की कविताएँ देखकर अखिलेश्वर खुश हुए। उन्होंने कविताएँ कई बार पढ़ीं और राधेश्याम को भी पढ़कर सुनाई कुन्तला की बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। किंतु राधेश्याम ख़ुश न हुए। उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कुन्तला ने अखिलेश्वर के विरह में ही विकल होकर ये कविताएँ लिखी हैं।

अखिलेश्वर निष्कपट और निःस्वार्थ भाव से कुन्तला का शिक्षण कर रहे थे। उन्हें कुन्तला से कोई विशेष प्रयोजन न था। कुन्तला के इस शिक्षण से उन्हें इतना ही आत्मसंतोष था कि वे साहित्य की एक सेविका तैयार कर रहे हैं जिसके द्वारा कभी-न-कभी साहित्य की कुछ सेवा अवश्य होगी। राधेश्याम के हृदय में इस प्रकार उनके प्रति ईर्ष्या के भाव प्रज्वलित हो चुके हैं, इसका उन्हें ध्यान भी न था। क्योंकि उनका हृदय निर्मल और पवित्र था ।

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